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वो सुकून-ए-जिस्म-ओ-जाँ गिर्दाब-ए-जाँ होने को है - अताउल हक़ क़ासमी कविता - Darsaal

वो सुकून-ए-जिस्म-ओ-जाँ गिर्दाब-ए-जाँ होने को है

वो सुकून-ए-जिस्म-ओ-जाँ गिर्दाब-ए-जाँ होने को है

पानियों का फूल पानी में रवाँ होने को है

माहि-ए-बे-आब हैं आँखों की बे-कल पुतलियाँ

इन निगाहों से कोई मंज़र निहाँ होने को है

गुम हुआ जाता है कोई मंज़िलों की गर्द में

ज़िंदगी भर की मसाफ़त राएगाँ होने को है

मैं फ़सील-ए-जिस्म के बाहर खड़ा हूँ दम-ब-ख़ुद

मारका सा ख़्वाहिशों के दरमियाँ होने को है

जागता रहता हूँ उस की वुसअतों के ख़्वाब में

चश्म-ए-हैराँ से बयाँ इक दास्ताँ होने को है

शाम होते ही 'अता' क्यूँ डूबने लगता है दिल

कुछ न कुछ होने को है और ना-गहाँ होने को है

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