यूँ मोहब्बत से न हम ख़ाना-ब-दोशों को बुला
इतने सादा हैं कि घर-बार उठा लाएँगे
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तराश और भी अपने तसव्वुर-ए-रब को
हाँ तुझे भी तो मयस्सर नहीं तुझ सा कोई
तन्हाइयों के दश्त में भागे जो रात भर
वो इक सुख़न ही हमारी सनद न बन जाए
इश्क़ तो अपने लहू में ही सँवरता है सो हम
कहीं जमाल-पज़ीरी की हद नहीं रखता
नुमू-पज़ीर हूँ हर दम कि मुझ में दम है अभी
क्या क्या न प्यास जागे मिरे दिल के दश्त में
मेहनत से मिल गया जो दफ़ीने के बीच था
कब कहाँ क्या मिरे दिलदार उठा लाएँगे
रात वहशत से गुरेज़ाँ था मैं आहू की तरह