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यक लम्हा सही उम्र का अरमान ही रह जाए - अता शाद कविता - Darsaal

यक लम्हा सही उम्र का अरमान ही रह जाए

यक लम्हा सही उम्र का अरमान ही रह जाए

इस ख़ल्वत-ए-यख़ में कोई मेहमान ही रह जाए

क़ुर्बत में शब-ए-गर्म का मौसम है तिरा जिस्म

ये ख़ित्ता-ए-जाँ वक़्फ़-ए-ज़मिस्तान ही रह जाए

मुझ शाख़-ए-बरहना पे सजा बर्फ़ की कलियाँ

पतझड़ पे तिरे हुस्न का एहसान ही रह जाए

बरफ़ाग के आशोब में जम जाती हैं सोचें

इस कर्ब-ए-क़यामत में तिरा ध्यान ही रह जाए

तुझ बिन तो सुनाई न दे सूरज की सदा भी

दिल दश्त-ए-हवा-बस्ता है सुनसान ही रह जाए

मरमर की सिलों में तो घुटे आगे का दम भी

ये क़र्या-ए-जानाँ है यहाँ जान ही रह जाए

सोचूँ तो शुआओं से तराशूँ तिरा पैकर

छू लूँ तो वही बर्फ़ का इंसान ही रह जाए

ये शाम ये चाँदी का बरसता हुआ झरना

कोई तिरी ज़ुल्फ़ों में परेशान ही रह जाए

सूरत से वो 'गुल-बर्फ़' सही फिर भी 'अता-शाद'

तासीर में वो मुश्क की पहचान ही रह जाए

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