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गहरी है शब की आँच कि ज़ंजीर-ए-दर कटे - अता शाद कविता - Darsaal

गहरी है शब की आँच कि ज़ंजीर-ए-दर कटे

गहरी है शब की आँच कि ज़ंजीर-ए-दर कटे

तारीकियाँ बढ़े तो सहर का सफ़र कटे

कितनी शदीद है ये ख़ुनुक सुर्ख़ियों की शाम

सुलगा है वो सुकूत कि तार-ए-नज़र कटे

सौगंद है कि तर्क-ए-तलब की सज़ा मिले

रुक जाए गर क़दम की मसाफ़त तो सर कटे

क्यूँ कुश्त-ए-ए'तिबार भी सरसर की ज़द में हो

क्या इंतिज़ार-ए-ख़ुल्क़ से फ़स्ल-ए-हुनर कटे

यूँ भी तो हो कि सर के सबब हो शिकस्त-ए-संग

ये भी तो हो कभी कि शजर से तबर कटे

खिल जाएँ रौशनी पे मिरे पत्थरों के रंग

उस रात सी पहाड़ का सीना मगर कटे

सदियों सफ़र है 'शाद' मुझे ख़ुद मिरा वजूद

दिल से ग़ुबार राह छुटे रहगुज़र कटे

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