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चोब-ए-सहरा भी वहाँ रश्क-ए-समर कहलाए - अता शाद कविता - Darsaal

चोब-ए-सहरा भी वहाँ रश्क-ए-समर कहलाए

चोब-ए-सहरा भी वहाँ रश्क-ए-समर कहलाए

हम ख़िज़ाँ-बख़्त शजर हो के हजर कहलाए

हम तह-ए-ख़ाक किए जाँ का अरक़ उन के लिए

और पस-ए-राह-ए-वफ़ा गर्द-ए-सफ़र कहलाए

उन की पोरों में सितारे भी हैं अंगारे भी

वो सदफ़ जिस्म हुए आतिश-ए-तर कहलाए

अपनी राहों का गुलिस्तान लगे वीराना

उन की दहलीज़ की मिट्टी भी गुहर कहलाए

जिन की ख़ैरात से लम्हों की लवें जागती हैं

शब-निज़ादों में वही दस्त-निगर कहलाए

उन के कत्बे पे यही वक़्त ने लिक्खा है कि वो

रौशनी बाँटते थे तीरा-नज़र कहलाए

वो तो दीवारों में चुनता है ज़माने का ज़मीर

हम ही क्या संग-ए-सर-ए-राहगुज़र कहलाए

'शाद' बे-सर्फ़ा गया उम्र का सरमाया-ए-हर्फ़

हम कि थे जान-ए-सदा गुंग-ए-हुनर कहलाए

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