तीरगी शम्अ बनी राहगुज़र में आई
तीरगी शम्अ बनी राहगुज़र में आई
साअत इक ऐसी भी कल अपने सफ़र में आई
जिस जगह चेहरा ही मेयार-ए-वफ़ा ठहरा है
ख़ाक ही ख़ाक वहाँ दस्त-ए-हुनर में आई
तेरी नज़रों में थी दुनिया तो यही क्या कम था
हश्र ये है कि तू दुनिया की नज़र में आई
बार-हा यारों ने साहिल से कहा था हम हैं
बार-हा नाव मगर अपनी भँवर में आई
ज़िंदगी समझूँ इसे या कि इसे मौत कहूँ
वो जो मेहमान की सूरत मिरे घर में आई
यूँ भी तारीख़ की तारीख़ रक़म होती है
निकली तारीख़ महल से तो खंडर में आई
ख़्वाब ही ख़्वाब की ताबीर हुआ तो जाना
ज़िंदगी क्यूँ किसी आँखों के असर में आई
शम्अ जलते ही बुझी और धुआँ ऐसा उठा
लज़्ज़त-ए-शाम यहाँ ख़्वाब-ए-सहर में आई
ज़िंदगी कुछ है 'अता' शेर-ओ-अदब है कुछ और
ये दो-रंगी की वबा कैसी हुनर में आई
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