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जानते थे ग़म तिरा दरिया भी था गहरा भी था - असरारुल हक़ असरार कविता - Darsaal

जानते थे ग़म तिरा दरिया भी था गहरा भी था

जानते थे ग़म तिरा दरिया भी था गहरा भी था

डूबने से पेशतर सोचा भी था समझा भी था

आइना ऐ काश तू अपना बना लेता मुझे

फ़ाएदा इस में बहुत तेरा भी था मेरा भी था

इक अज़ाब-ए-जान थी उस की तुनक-ख़ूई मगर

ज़ाइक़ा उस दर्द का मीठा भी था तीखा भी था

कैसे पढ़ लेता मैं उस चेहरे से अपना हाल-ए-दिल

वो रुख़-ए-जुगनू-सिफ़त जलता भी था बुझता भी था

यूँ किया है मुद्दतों मैं ने ग़ज़ल का मश्ग़ला

एक तेरे नाम को लिखता भी था पढ़ता भी था

दिल की राहों में ब-हर-सूरत रही इक रौशनी

चाँद तेरे दर्द का बढ़ता भी था घटता भी था

हम ने तेरे अक्स को तक़्सीम कब होने दिया

आइना तो बारहा टूटा भी था बिखरा भी था

जब वो रुख़्सत हो गए हम से तो याद आया हमें

उन से ऐ 'असरार' कुछ कहना भी था सुनना भी था

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