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अनजाने लोगों को हर सू चलता फिरता देख रहा हूँ - असरार ज़ैदी कविता - Darsaal

अनजाने लोगों को हर सू चलता फिरता देख रहा हूँ

अनजाने लोगों को हर सू चलता फिरता देख रहा हूँ

कैसी भीड़ है फिर भी ख़ुद को तन्हा तन्हा देख रहा हूँ

दीवारों से रौज़न रौज़न क्या क्या मंज़र उभरे हैं

सूरज को भी दूर उफ़ुक़ पर जलता बुझता देख रहा हूँ

जिस को अपना रूप दिया और जिस के हर दम ख़्वाब बुने

कब से मैं उस आने वाले कल का रस्ता देख रहा हूँ

सुब्हों की पेशानी पर ये कैसी सियाही फैली है

अपनी अना को हर लम्हे सूली पर चढ़ता देख रहा हूँ

आईने में क्या देखूँ जब हर चेहरा आईना है

उस का चेहरा देख रहा हूँ अपना चेहरा देख रहा हूँ

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