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राब्ता टूट न जाए कहीं ख़ुद-बीनी से - असरार ज़ैदी कविता - Darsaal

राब्ता टूट न जाए कहीं ख़ुद-बीनी से

राब्ता टूट न जाए कहीं ख़ुद-बीनी से

दिल लरज़ उट्ठा है माहौल की संगीनी से

हौसला है तो सराबों में उतर कर देखो

ज़िंदा रहना तो इबारत है ख़ुश-आईनी से

अब सर-ए-आख़िर-ए-शब लाए हो सूरज की ख़बर

यूँ तमाशा न करो सुब्ह की रंगीनी से

न बुरूदत थी न हिद्दत थी अजब मौसम था

चोट खाया किए हम अपनी ही कज-बीनी से

आँख पथराई हुई और ज़बाँ गुंग कि जब

ज़र्फ़ मिट्टी के बने और बदन चीनी से

दर्द तल्ख़ाबा-ए-एहसास में ज़म हो के रहा

क़त्ल-गह पट गई अल्फ़ाज़ की शीरीनी से

सामने आ के जो वो हाथ मिलाए तो सही

मुझ को हौल आता है उस शख़्स की मिस्कीनी से

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