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यूँ पाबंद-ए-सलासिल हो कर कौन फिरे बाज़ारों में - असरार ज़ैदी कविता - Darsaal

यूँ पाबंद-ए-सलासिल हो कर कौन फिरे बाज़ारों में

यूँ पाबंद-ए-सलासिल हो कर कौन फिरे बाज़ारों में

ख़ुद ही क़ैद न हो जाएँ क्यूँ अपनी ही दीवारों में

रात के लम्हों की संगीनी दिल को डसती रहती है

जिस्म सुलगता रहता है तन्हाई के अँगारों में

रौशनियों के शहर अँधेरों के जादू में डूब गए

बुझने लगी हो नूर की मशअ'ल जैसे चाँद-सितारों में

दर्द के तपते सहरा में इक आबला-पा सर-गरदाँ है

तुम को क्या तुम जश्न मनाओ ख़ुशियों के गहवारों में

मैं कोई सुक़रात न था जो ज़हर का प्याला पी जाता

मैं ख़ुद कैसे डूब सकूँगा अपने लहू की धारों में

शहर की राहें रक़्स-कुनाँ हैं रंग फ़ज़ा में बिखरा है

कितने चेहरे सजे हुए हैं इन चमकीली कारों में

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