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मिरी वफ़ा का तिरा लुत्फ़ भी जवाब नहीं - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

मिरी वफ़ा का तिरा लुत्फ़ भी जवाब नहीं

मिरी वफ़ा का तिरा लुत्फ़ भी जवाब नहीं

मिरे शबाब की क़ीमत तिरा शबाब नहीं

ये माहताब नहीं है कि आफ़्ताब नहीं

सभी है हुस्न मगर इश्क़ का जवाब नहीं

मिरी निगाह में जल्वे हैं जल्वे ही जल्वे

यहाँ हिजाब नहीं है यहाँ नक़ाब नहीं

जुनूँ भी हद से सिवा शौक़ भी है हद से सिवा

ये बात क्या है कि मैं मौरिद-ए-इताब नहीं

यहाँ तो हुस्न का दिल भी है ग़म से सद पारा

मैं कामयाब नहीं वो भी कामयाब नहीं

यहाँ तो रात की बेदारियाँ मुसल्लम हैं

मगर वहाँ भी हसीं अँखड़ियों में ख़्वाब नहीं

न पूछिए मिरी दुनिया को मेरी दुनिया में

ख़ुद आफ़्ताब भी ज़र्रा है आफ़्ताब नहीं

सब ही हैं मय-कदा-ए-दहर में ख़िरद वाले

कोई ख़राब नहीं है कोई ख़राब नहीं

'मजाज़' किस को मैं समझाऊँ कोई क्या समझे

कि कामयाब-ए-मोहब्बत भी कामयाब नहीं

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