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करिश्मा-साजी-ए-दिल देखता हूँ - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

करिश्मा-साजी-ए-दिल देखता हूँ

करिश्मा-साजी-ए-दिल देखता हूँ

तुम्हें अपने मुक़ाबिल देखता हूँ

जहाँ मंज़िल का इम्काँ ही नहीं है

वहाँ आसार-ए-मंज़िल देखता हूँ

सदा दी तू ने क्या जाने कहाँ से

मगर मैं जानिब-ए-दिल देखता हूँ

कहाँ का रहनुमा और कैसी राहें

जिधर बढ़ता हूँ मंज़िल देखता हूँ

इशारा है तिरा तूफ़ाँ की जानिब

मगर मैं हूँ कि साहिल देखता हूँ

मोहब्बत ही मोहब्बत है जहाँ पर

मोहब्बत की वो मंज़िल देखता हूँ

मिरे हाथों में भी है साज़ लेकिन

अभी मैं रंग-ए-महफ़िल देखता हूँ

तिरे हाथों से जो टूटा था इक दिन

वही टूटा हुआ दिल देखता हूँ

कभी तूफ़ाँ ही तूफ़ाँ है नज़र में

कभी साहिल ही साहिल देखता हूँ

ग़ुरूर-ए-हुस्न-ए-बातिल पर नज़र है

नियाज़-ए-इश्क़-ए-कामिल देखता हूँ

'मजाज़' और हुस्न के क़दमों पे सज्दे

मआल-ए-ज़ोम-ए-बातिल देखता हूँ

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