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इज़्न-ए-ख़िराम लेते हुए आसमाँ से हम - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

इज़्न-ए-ख़िराम लेते हुए आसमाँ से हम

इज़्न-ए-ख़िराम लेते हुए आसमाँ से हम

हट कर चले हैं रहगुज़र-ए-कारवाँ से हम

क्या पूछते हो झूमते आए कहाँ से हम

पी कर उठे हैं ख़ुम-कदा-ए-आसमाँ से हम

क्यूँकर हुआ है फ़ाश ज़माने पे क्या कहें

वो राज़-ए-दिल जो कह न सके राज़-दाँ से हम

हमदम यही है रहगुज़र-ए-यार-ए-ख़ुश-ख़िराम

गुज़रे हैं लाख बार इसी कहकशाँ से हम

क्या क्या हुआ है हम से जुनूँ में न पूछिए

उलझे कभी ज़मीं से कभी आसमाँ से हम

हर नर्गिस-ए-जमील ने मख़मूर कर दिया

पी कर उठे शराब हर इक बोस्ताँ से हम

ठुकरा दिए हैं अक़्ल ओ ख़िरद के सनम-कदे

घबरा चुके थे कशमकश-ए-इम्तिहाँ से हम

देखेंगे हम भी कौन है सज्दा तराज़-ए-शौक़

ले सर उठा रहे हैं तिरे आस्ताँ से हम

बख़्शी हैं हम को इश्क़ ने वो जुरअतें 'मजाज़'

डरते नहीं सियासत-ए-अहल-ए-जहाँ से हम

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