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अक़्ल की सतह से कुछ और उभर जाना था - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

अक़्ल की सतह से कुछ और उभर जाना था

अक़्ल की सतह से कुछ और उभर जाना था

इश्क़ को मंज़िल-ए-पस्ती से गुज़र जाना था

जल्वे थे हल्क़ा-ए-सर दाम-ए-नज़र से बाहर

मैं ने हर जल्वे को पाबंद-ए-नज़र जाना था

हुस्न का ग़म भी हसीं फ़िक्र हसीं दर्द हसीं

उन को हर रंग में हर तौर सँवर जाना था

हुस्न ने शौक़ के हंगामे तो देखे थे बहुत

इश्क़ के दावा-ए-तक़दीस से डर जाना था

ये तो क्या कहिए चला था मैं कहाँ से हमदम

मुझ को ये भी न था मालूम किधर जाना था

हुस्न और इश्क़ को दे ताना-ए-बेदाद 'मजाज़'

तुम को तो सिर्फ़ इसी बात पर मर जाना था

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