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ऐश से बे-नियाज़ हैं हम लोग - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

ऐश से बे-नियाज़ हैं हम लोग

ऐश से बे-नियाज़ हैं हम लोग

बे-ख़ुद-ए-सोज़-ओ-साज़ हैं हम लोग

जिस तरह चाहे छेड़ दे हम को

तेरे हाथों में साज़ हैं हम लोग

बे-सबब इल्तिफ़ात क्या मअ'नी

कुछ तो ऐ चश्म-ए-नाज़ हैं हम लोग

महफ़िल-ए-सोज़ ओ साज़ है दुनिया

हासिल-ए-सोज़ ओ साज़ हैं हम लोग

कोई इस राज़ से नहीं वाक़िफ़

क्यूँ सरापा नियाज़ हैं हम लोग

हम को रुस्वा न कर ज़माने में

बस-कि तेरा ही राज़ हैं हम लोग

सब इसी इश्क़ के करिश्मे हैं

वर्ना क्या ऐ 'मजाज़' हैं हम लोग

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