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वतन-आशोब - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

वतन-आशोब

सब्ज़ा ओ बर्ग ओ लाला ओ सर्व-ओ-समन को क्या हुआ

सारा चमन उदास है हाए चमन को क्या हुआ

इक सुकूत हर तरफ़ होश-रुबा ओ हौल-नाक

ख़ुल्द-ए-वतन के पासबाँ ख़ुल्द-ए-वतन को क्या हुआ

रक़्स-ए-तरब किधर गया नग़्मा-तराज़ क्या हुए

ग़म्ज़ा-ओ-नाज़ क्या हुए इश्वा ओ फ़न को क्या हुआ

जिस की नवा-ए-दिल-सिताँ ज़ख़्मा-ए-साज़-ए-शौक़ थी

कोई बताओ उस बुत-ए-ग़ुंचा-दहन को क्या हुआ

चश्मक-ए-दम-ब-दम नहीं मश्क़-ए-ख़िराम-ओ-रम नहीं

मेरे ग़ज़ाल क्या हुए मेरे ख़ुतन को क्या हुआ

छाई है क्यूँ फ़सुर्दगी आलम-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ पर

आज वो ''नल'' किधर गए आज ''दमन'' को क्या हुआ

आँखों में ख़ौफ़ ओ यास है चेहरा उदास उदास है

अस्र-ए-रवाँ की लैला-ए-बुर्क़ा-फ़गन को क्या हुआ

आह ख़िरद किधर गई आह जुनूँ ने क्या किया

आह शबाब-ए-ख़ूगर-ए-दार-ओ-रसन को क्या हुआ

कोई बताए अज़्मत-ए-ख़ाक-ए-वतन कहाँ है अब

कोई बताए ग़ैरत-ए-अहल-ए-वतन को क्या हुआ

कोह वही दमन वही दश्त वही चमन वही

फिर ये 'मजाज़' जज़्बा-ए-हुब्ब-ए-वतन को क्या हुआ

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