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तिफ़्ली के ख़्वाब - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

तिफ़्ली के ख़्वाब

तिफ़्ली में आरज़ू थी किसी दिल में हम भी हों

इक रोज़ सोज़-ओ-साज़ की महफ़िल में हम भी हों

दिल हो असीर गेसू-ए-अम्बर-सरिश्त में

उलझे इन्हीं हसीन सलासिल में हम भी हों

छेड़ा है साज़ हज़रत-ए-'साअदी' ने जिस जगह

उस बोस्ताँ के शोख़ अनादिल में हम भी हों

गाएँ तराने दोश-ए-सुरय्या पे रख के सर

तारों से छेड़ हो मह-ए-कामिल में हम भी हों

आज़ाद हो के कश्मकश-ए-इल्म से कभी

आशुफ़्तगान-ए-इश्क़ की मंज़िल में हम भी हों

दीवाना-वार हम भी फिरें कोह-ओ-दश्त में

दिल-दादगान-ए-शोला-ए-महमिल में हम भी हों

दिल को हो शाहज़ादी-ए-मक़्सद की धुन लगी

हैराँ सुराग़-ए-जादा-ए-मंज़िल में हम भी हों

सहरा हो, ख़ार-ज़ार हो, वादी हो, आग हो

इक दिन इन्हीं मुहीब मनाज़िल में हम भी हूँ

दरया-ए-हश्र-ख़ेज़ की मौजों को चीर कर

कश्ती समेत दामन-ए-साहिल में हम भी हों

इक लश्कर-ए-अज़ीम हो मसरूफ़ कार-ज़ार

लश्कर के पेश पेश मुक़ाबिल में हम भी हों

चमके हमारे हाथ में भी तेग़-ए-आबदार

हंगाम-ए-जंग नर्ग़ा-ए-बातिल में हम भी हों

क़दमों पे जिन के ताज हैं इक़्लीम-ए-दहर के

उन चंद कुश्तगान-ए-ग़म-ए-दिल में हम भी हों

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