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तआरुफ़ - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

तआरुफ़

ख़ूब पहचान लो असरार हूँ मैं

जिंस-ए-उल्फ़त का तलबगार हूँ मैं

इश्क़ ही इश्क़ है दुनिया मेरी

फ़ित्ना-ए-अक़्ल से बे-ज़ार हूँ मैं

ख़्वाब-ए-इशरत में हैं अर्बाब-ए-ख़िरद

और इक शाइर-ए-बेदार हूँ मैं

छेड़ती है जिसे मिज़राब-ए-अलम

साज़-ए-फ़ितरत का वही तार हूँ मैं

रंग नज़्ज़ारा-ए-क़ुदरत मुझ से

जान-ए-रंगीनी-ए-कोहसार हूँ मैं

नश्शा-ए-नर्गिस-ए-ख़ूबाँ मुझ से

ग़ाज़ा-ए-आरिज़-ओ-रुख़्सार हूँ मैं

ऐब-जू हाफ़िज़ ओ ख़य्याम मैं था

हाँ कुछ इस का भी गुनहगार हूँ मैं

ज़िंदगी क्या है गुनाह-ए-आदम

ज़िंदगी है तो गुनहगार हूँ मैं

रश्क-ए-सद-होश है मस्ती मेरी

ऐसी मस्ती है कि हुश्यार हूँ मैं

ले के निकला हूँ गुहर-हा-ए-सुख़न

माह ओ अंजुम का ख़रीदार हूँ मैं

दैर ओ काबा में मिरे ही चर्चे

और रुस्वा सर-ए-बाज़ार हूँ मैं

कुफ़्र ओ इल्हाद से नफ़रत है मुझे

और मज़हब से भी बे-ज़ार हूँ मैं

अहल-ए-दुनिया के लिए नंग सही

रौनक़-ए-अंजुमन-ए-यार हूँ मैं

ऐन इस बे-सर-ओ-सामानी में

क्या ये कम है कि गुहर-बार हूँ मैं

मेरी बातों में मसीहाई है

लोग कहते हैं कि बीमार हूँ मैं

मुझ से बरहम है मिज़ाज-ए-पीरी

मुजरिम-ए-शोख़ी-ए-गुफ़्तार हूँ मैं

हूर ओ ग़िल्माँ का यहाँ ज़िक्र नहीं

नौ-ए-इंसाँ का परस्तार हूँ मैं

महफ़िल-ए-दहर पे तारी है जुमूद

और वारफ़्ता-ए-रफ़्तार हूँ मैं

इक लपकता हुआ शोला हूँ मैं

एक चलती हुई तलवार हूँ मैं

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