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शिकवा-ए-मुख़्तसर - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

शिकवा-ए-मुख़्तसर

मुझे शिकवा नहीं दुनिया की उन ज़ोहरा-जबीनों से

हुई जिन से न मेरे शौक़-ए-रुस्वा की पज़ीराई

मुझे शिकवा नहीं उन पाक बातिन नुक्ता-चीनों से

लब-ए-मोजिज़-नुमा ने जिन के मुझ पर आग बरसाई

मुझे शिकवा नहीं तहज़ीब के उन पासबानों से

न लेने दी जिन्हों ने फ़ितरत-ए-शाइ'र को अंगड़ाई

मुझे शिकवा नहीं दैर-ओ-हरम के आस्तानों से

वो जिन के दर पे की है मुद्दतों मैं ने जबीं-साई

मुझे शिकवा नहीं उफ़्तादगान-ए-ऐश-ओ-इशरत से

वो जिन को मेरे हाल-ए-ज़ार पर अक्सर हँसी आई

मुझे शिकवा नहीं उन साहिबान-ए-जाह-ओ-सरवत से

नहीं आती मिरे हिस्सा में जिन की एक भी पाई

ज़माने के निज़ाम-ए-ज़ंग-आलूदा से शिकवा है

क़वानीन-ए-कुहन आईन-ए-फ़र्सूदा से शिकवा है

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