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शौक़-ए-गुरेज़ाँ - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

शौक़-ए-गुरेज़ाँ

दैर ओ काबा का मैं नहीं क़ाएल

दैर ओ काबा को आस्ताँ न बना

मुझ में तू रूह-ए-सरमदी मत फूँक

रौनक़-ए-बज़्म-ए-आरिफ़ाँ न बना

दश्त-ए-ज़ुल्मात में भटकने दे

मेरी राहों को कहकशाँ न बना

इशरत-ए-जहल-ओ-तीरगी मत छीन

महरम-ए-राज़-ए-दो-जहाँ न बना

बिजलियों से जहाँ न हो चश्मक

उस गुलिस्ताँ में आशियाँ न बना

ख़ार-ए-चश्म-ए-हरीफ़ रहने दे

हिर्ज़-ए-बाज़ू-ए-दोस्ताँ न बना

मेरी ख़ुद-बीनियाँ न ले मुझ से

जल्वा-अफ़रोज़-ए-महविशाँ न बना

दिल-ए-सद-पारा-ए-हवादिस को

तख़्ता-ए-मश्क़-ए-गुल-रुख़ाँ न बना

मेरी ख़ुद्दारियों का ख़ून न कर

मुतरिब-ए-बज़्म-ए-दिल-बराँ न बना

माह-ओ-अंजुम से मुझ को क्या निस्बत

मुझ को इन का मिज़ाज-दाँ न बना

जिस को अपनी ख़बर नहीं रहती

उस को सालार-ए-कारवाँ न बना

मेरी जानिब निगाह-ए-लुत्फ़ न कर

ग़म को इस दर्जा कामराँ न बना

इस ज़मीं को ज़मीं ही रहने दे

इस ज़मीं को तू आसमाँ न बना

मेरी हस्ती नयाज़-ओ-शौक़ सही

इस को उनवान-ए-दास्ताँ न बना

राज़ तेरा छपा नहीं सकता

तू मुझे अपना राज़-दाँ न बना

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