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सानेहा - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

सानेहा

दर्द-ओ-ग़म-ए-हयात का दरमाँ चला गया

वो ख़िज़्र-ए-अस्र-ओ-ईसा-ए-दौराँ चला गया

हिन्दू चला गया न मुसलमाँ चला गया

इंसाँ की जुस्तुजू में इक इंसाँ चला गया

रक़्साँ चला गया न ग़ज़ल-ख़्वाँ चला गया

सोज़-ओ-गुदाज़ ओ दर्द में ग़लताँ चला गया

बरहम है ज़ुल्फ़-ए-कुफ़्र तो ईमाँ सर-निगूँ

वो फ़ख़्र-ए-कुफ्र ओ नाज़िश-ए-ईमाँ चला गया

बीमार ज़िंदगी की करे कौन दिल-दही

नब्बाज़ ओ चारासाज़-ए-मरीज़ाँ चला गया

किस की नज़र पड़ेगी अब ''इस्याँ'' पे लुत्फ़ की

वो महरम-ए-नज़ाकत-ए-इस्याँ चला गया

वो राज़-दार-ए-महफ़िल-ए-याराँ नहीं रहा

वो ग़म-गुसार-ए-बज़्म-ए-अरीफ़ाँ चला गया

अब काफ़िरी में रस्म-ओ-राह-ए-दिलबरी नहीं

ईमाँ की बात ये है कि ईमाँ चला गया

इक बे-खु़द-ए-सुरूर-ए-दिल-ओ-जाँ नहीं रहा

इक आशिक़-ए-सदाक़त-ए-पिन्हाँ चला गया

बा-चश्म-ए-नम है आज ज़ुलेख़ा-ए-काएनात

ज़िंदाँ-शिकन वो यूसुफ़-ए-ज़िंदाँ चला गया

ऐ आरज़ू वो चश्मा-ए-हैवाँ न कर तलाश

ज़ुल्मात से वो चश्मा-ए-हैवाँ चला गया

अब संग-ओ-ख़िश्त ओ ख़ाक ओ ख़ज़फ़ सर-बुलंद हैं

ताज-ए-वतन का लाल-ए-दरख़्शाँ चला गया

अब अहरमन के हाथ में है तेग़-ए-ख़ूँ-चकाँ

ख़ुश है कि दस्त-ओ-बाज़ू-ए-यज़्दाँ चला गया

देव-ए-बदी से मार्का-ए-सख़्त ही सही

ये तो नहीं कि ज़ोर-ए-जवानाँ चला गया

क्या अहल-ए-दिल में जज़्बा-ए-ग़ैरत नहीं रहा

क्या अज़्म-ए-सर-फ़रोशी-ए-मर्दां चला गया

क्या बाग़ियों की आतिश-ए-दिल सर्द हो गई

क्या सरकशों का जज़्बा-ए-पिनहां चला गया

क्या वो जुनून-ओ-जज़्बा-ए-बेदार मर गया

क्या वो शबाब-ए-हश्र-बदामाँ चला गया

ख़ुश है बदी जो दाम ये नेकी पे डाल के

रख देंगे हम बदी का कलेजा निकाल के

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