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पहला जश्न-ए-आज़ादी - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

पहला जश्न-ए-आज़ादी

ब-सद ग़ुरूर ब-सद फ़ख़्र-ओ-नाज़-ए-आज़ादी

मचल के खुल गई ज़ुल्फ़-ए-दराज़-ए-आज़ादी

मह-ओ-नुजूम हैं नग़्मा-तराज़-ए-आज़ादी

वतन ने छेड़ा है इस तरह साज़-ए-आज़ादी

ज़माना रक़्स में है ज़िंदगी ग़ज़ल-ख़्वाँ है

ज़माना रक़्स में है ज़िंदगी ग़ज़ल-ख़्वाँ है

हर इक जबीं पे है इक मौज-ए-नूर-ए-आज़ादी

हर इक आँख में कैफ़-ओ-सुरूर-ए-आज़ादी

ग़ुलामी ख़ाक-बसर है हुज़ूर-ए-आज़ादी

हर एक क़स्र है इक बाम-ए-तूर-ए-आज़ादी

हर एक बाम पे इक परचम-ए-ज़र-अफ़्शाँ है

हर एक सम्त निगारान-ए-यासमीं-पैकर

निकल पड़े हैं दर-ओ-बाम से मह-ओ-अख़्तर

वो सैल-ए-नूर है ख़ीरा है आदमी की नज़र

ब-सद ग़ुरूर-ओ-अदा ख़ंदा-ज़न है गर्दूं पर

ज़मीन-ए-हिन्द कि जोला-निगह ग़ज़ालाँ है

सदा दो अंजुम-ए-अफ़्लाक रक़्स फ़रमाएँ

बुतान-ए-काफ़िर-ओ-सफ़्फ़ाक रक़्स फ़रमाएँ

शरीक हल्का-ए-इदराक रक़्स फ़रमाएँ

तरब का वक़्त है बेबाक रक़्स फ़रमाएँ

कि ये बहार-ए-पयामी-ए-सद-बहाराँ है

ये इंक़लाब का मुज़्दा है इंक़लाब नहीं

ये आफ़्ताब का परतव है आफ़्ताब नहीं

वो जिस की ताब-ओ-तवानाई का जवाब नहीं

अभी वो सइ-ए-जुनूँ-ख़ेज़ कामयाब नहीं

ये इंतिहा नहीं आग़ाज़-ए-कार-ए-मर्दां है

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