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नज़्र-ए-दिल - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

नज़्र-ए-दिल

अपने दिल को दोनों आलम से उठा सकता हूँ मैं

क्या समझती हो कि तुम को भी भुला सकता हूँ मैं

कौन तुम से छीन सकता है मुझे क्या वहम है

ख़ुद ज़ुलेख़ा से भी तो दामन बचा सकता हूँ मैं

दिल में तुम पैदा करो पहले मिरी सी जुरअतें

और फिर देखो कि तुम को क्या बना सकता हूँ मैं

दफ़्न कर सकता हूँ सीने में तुम्हारे राज़ को

और तुम चाहो तो अफ़्साना बना सकता हूँ में

में क़सम खाता हूँ अपने नुत्क़ के एजाज़ की

तुम को बज़्म-ए-माह-आे-अनजुम में बिठा सकता हूँ मैं

सर पे रख सकता हूँ ताज-ए-किश्वर-ए-नूरानियाँ

महफ़िल-ए-ख़ुर्शीद को नीचा दिखा सकता हूँ मैं

मैं बहुत सरकश हूँ लेकिन इक तुम्हारे वास्ते

दिल बुझा सकता हूँ मैं आँखें बचा सकता हूँ मैं

तुम अगर रुठो तो इक तुम को मनाने के लिए

गीत गा सकता हूँ मैं आँसू बहा सकता हूँ मैं

जज़्ब है दिल में मिरे दोनों जहाँ का सोज़-ओ-साज़

बरबत-ए-फ़ितरत का हर नग़्मा सुना सकता हूँ मैं

तुम समझती हो कि हैं पर्दे बहुत से दरमियाँ

मैं ये कहता हूँ कि हर पर्दा उठा सकता हूँ मैं

तुम कि बन सकती हो हर महफ़िल में फ़िरदौस-ए-नज़र

मुझ को ये दावा कि हर महफ़िल पे छा सकता हूँ मैं

आओ मिल कर इंक़लाब-ए-ताज़ा-तर पैदा करें

दहर पर इस तरह छा जाएँ कि सब देखा करें

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