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नन्ही पुजारन - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

नन्ही पुजारन

इक नन्ही मुन्नी सी पुजारन

पतली बाँहें पतली गर्दन

भोर भए मंदिर आई है

आई नहीं है माँ लाई है

वक़्त से पहले जाग उठी है

नींद अभी आँखों में भरी है

ठोड़ी तक लट आई हुई है

यूँही सी लहराई हुई है

आँखों में तारों की चमक है

मुखड़े पे चाँदी की झलक है

कैसी सुंदर है क्या कहिए

नन्ही सी इक सीता कहिए

धूप चढ़े तारा चमका है

पत्थर पर इक फूल खिला है

चाँद का टुकड़ा फूल की डाली

कम-सिन सीधी भोली भाली

हाथ में पीतल की थाली है

कान में चाँदी की बाली है

दिल में लेकिन ध्यान नहीं है

पूजा का कुछ ज्ञान नहीं है

कैसी भोली छत देख रही है

माँ बढ़ कर चुटकी लेती है

चुपके चुपके हँस देती है

हँसना रोना उस का मज़हब

उस को पूजा से क्या मतलब

ख़ुद तो आई है मंदिर में

मन उस का है गुड़िया-घर में

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