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मुसाफ़िर - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

मुसाफ़िर

मुसाफ़िर यूँही गीत गाए चला जा

सर-ए-रहगुज़र कुछ सुनाए चला जा

तिरी ज़िंदगी सोज़-ओ-साज़-ए-मोहब्बत

हँसाए चला जा रुलाये चला जा

तिरे ज़मज़मे हैं ख़ुनुक भी तपाँ भी

लगाए चला जा बुझाए चला जा

कोई लाख रोके कोई लाख टोके

क़दम अपने आगे बढ़ाए चला जा

हसीं भी तुझे रास्ते में मिलेंगे

नज़र मत मिला मुस्कुराए चला जा

मोहब्बत के नक़्शे तमन्ना के ख़ाके

बनाए चला जा मिटाए चला जा

क़दामत हदें खींचती ही रहेगी

क़दामत की बुनियाद ढाए चला जा

क़सम शौक़ की फ़ितरत-ए-मुज़्तरिब की

यूँही नित-नई धुन में गाए चला जा

जो परचम उठा ही लिया सर-कशी का!

उसे आसमाँ तक उड़ाए चला जा

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