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मुझे जाना है इक दिन - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

मुझे जाना है इक दिन

मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर

अभी फिर दर्द टपकेगा मिरी आवाज़ से आख़िर

अभी फिर आग उट्ठेगी शिकस्ता साज़ से आख़िर

मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर

अभी तो हुस्न के पैरों पे है जब्र-ए-हिना-बंदी

अभी है इश्क़ पर आईन-ए-फ़र्सूदा की पाबंदी

अभी हावी है अक़्ल ओ रूह पर झूटी ख़ुदावंदी

मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर

अभी तहज़ीब-ए-अदल-ओ-हक़ की कश्ती खे नहीं सकती

अभी ये ज़िंदगी दाद-ए-सदाक़त दे नहीं सकती

अभी इंसानियत दौलत से टक्कर ले नहीं सकती

मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर

अभी तो काएनात औहाम का इक कार-ख़ाना है

अभी धोका हक़ीक़त है हक़ीक़त इक फ़साना है

अभी तो ज़िंदगी को ज़िंदगी कर के दिखाना है

मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर

अभी हैं शहर की तारीक गलियाँ मुंतज़िर मेरी

अभी है इक हसीं तहरीक-ए-तूफ़ाँ मुंतज़िर मेरी

अभी शायद है इक ज़ंजीर-ए-ज़िंदाँ मुंतज़िर मेरी

मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर

अभी तो फ़ाक़ा-कश इंसान से आँखें मिलाना है

अभी झुलसे हुए चेहरों पे अश्क-ए-ख़ूँ बहाना है

अभी पामाल-ए-जौर आदम को सीने से लगाना है

मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर

अभी हर दुश्मन-ए-नज़्म-ए-कुहन के गीत गाना है

अभी हर लश्कर-ए-ज़ुल्मत-शिकन के गीत गाना है

अभी ख़ुद सरफ़रोशान-ए-वतन के गीत गाना है

मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर

कोई दम में हयात-ए-नौ का फिर परचम उठाता हूँ

ब-ईमा-ए-हमिय्यत जान की बाज़ी लगाता हूँ

मैं जाऊँगा मैं जाऊँगा मैं जाता हूँ में जाता हूँ

मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर

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