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मादाम - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

मादाम

ज़ुल्फ़ की छाँव में आरिज़ की तब-ओ-ताब लिए

लब पे अफ़्सूँ लिए आँखों में मय-ए-नाब लिए

हर नफ़स रौ में लिए सोरिश-ए-तुग़्यान-ए-निहाँ

हर नज़र शौक़ का अफ़सान-ए-बे-ताब लिए

सेहर ओ एजाज़ लिए जुम्बिश-ए-मिज़्गान-ए-दराज़

ख़ंदा-ए-शोख़ जमाल-ए-दुर-ए-ख़ुश-आब लिए

ज़ौ-फ़गन रू-ए-हसीं पर शब-ए-महताब-ए-शबाब

चश्म-ए-मख़मूर नशात-ए-शब-ए-महताब लिए

नश्शा-ए-नाज़ जवानी में शराबोर अदा

जिस्म ज़ौक़-ए-गुहर अतलस-ओ-कमख़्वाब लिए

ज़ुल्फ़-ए-शब-रंग लिए संदल ओ ऊद ओ अम्बर

ख़म-ए-अबरु-ए-हसीं दैर की मेहराब लिए

लब-ए-गुल-रंग-ओ-हसीं जिस्म गुदाज़-ओ-सीमीं

शोख़ी-ए-बर्क़ लिए लर्ज़िश-ए-सीमाब लिए

एक सय्याद-ए-ख़ुश-अंदाम स्वाद-ए-मशरिक़

ज़ुल्फ़-ए-बंगाल लिए तलअत-ए-पंजाब लिए

नुज़हत ओ नाज़ का इक पैकर-ए-शादाब-अो-हसीं

निकहत-ओ-नूर का उमडा हुआ सैलाब लिए

मेरी वारफ़तगी-ए-शौक़ मुसल्लम लेकिन

किस की आँखें हैं ज़ुलेख़ा का हसीं ख़्वाब लिए

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