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लखनऊ - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

लखनऊ

फ़िरदौस-ए-हुस्न‌‌‌‌-ओ-इश्क़ है दामान-ए-लखनऊ

आँखों में बस रहे हैं ग़ज़ालान-ए-लखनऊ

सब्र-आज़मा है ग़मज़ा-ए-तुर्कान-ए-लखनऊ

रश्क-ए-ज़नान-ए-मिस्र कनीज़ान-ए-लखनऊ

हर सम्त इक हुजूम-ए-निगारान-ए-लखनऊ

और मैं कि एक शोख़-ग़ज़ल-ए-ख़्वान-ए-लखनऊ

मुतरिब भी है शराब भी अब्र-ए-बहार भी

शीराज़ बन गया है शबिस्तान-ए-लखनऊ

तोले हुए है तेग़-ओ-सिनाँ हुस्न-ए-बे-नक़ाब

नावक-फ़गन है जल्वा-ए-पिन्हान-ए-लखनऊ

इक नौ-बहार-ए-नाज़ को ताके है फिर निगाह

वो नौ-बहार-ए-नाज़ कि है जान-ए-लखनऊ

दस्त-ए-जुनूँ को रोकिए ये ख़ब्त छोड़िए

रुस्वा है यूँही चाक-ए-गरेबान-ए-लखनऊ

कुछ रोज़ का मुसाफ़िर-ओ-मेहमाँ हूँ और क्या

क्यूँ बद-गुमाँ हों यूसुफ़-ए-कनआ'न-ए-लखनऊ

अब उस के बा'द सुब्ह है और सुब्ह-ए-नौ 'मजाज़'

हम पर है ख़त्म शाम-ए-ग़रीबान-ए-लखनऊ

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