लखनऊ
फ़िरदौस-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ है दामान-ए-लखनऊ
आँखों में बस रहे हैं ग़ज़ालान-ए-लखनऊ
सब्र-आज़मा है ग़मज़ा-ए-तुर्कान-ए-लखनऊ
रश्क-ए-ज़नान-ए-मिस्र कनीज़ान-ए-लखनऊ
हर सम्त इक हुजूम-ए-निगारान-ए-लखनऊ
और मैं कि एक शोख़-ग़ज़ल-ए-ख़्वान-ए-लखनऊ
मुतरिब भी है शराब भी अब्र-ए-बहार भी
शीराज़ बन गया है शबिस्तान-ए-लखनऊ
तोले हुए है तेग़-ओ-सिनाँ हुस्न-ए-बे-नक़ाब
नावक-फ़गन है जल्वा-ए-पिन्हान-ए-लखनऊ
इक नौ-बहार-ए-नाज़ को ताके है फिर निगाह
वो नौ-बहार-ए-नाज़ कि है जान-ए-लखनऊ
दस्त-ए-जुनूँ को रोकिए ये ख़ब्त छोड़िए
रुस्वा है यूँही चाक-ए-गरेबान-ए-लखनऊ
कुछ रोज़ का मुसाफ़िर-ओ-मेहमाँ हूँ और क्या
क्यूँ बद-गुमाँ हों यूसुफ़-ए-कनआ'न-ए-लखनऊ
अब उस के बा'द सुब्ह है और सुब्ह-ए-नौ 'मजाज़'
हम पर है ख़त्म शाम-ए-ग़रीबान-ए-लखनऊ
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