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ख़्वाब-ए-सहर - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

ख़्वाब-ए-सहर

महर सदियों से चमकता ही रहा अफ़्लाक पर

रात ही तारी रही इंसान के इदराक पर

अक़्ल के मैदान में ज़ुल्मत का डेरा ही रहा

दिल में तारीकी दिमाग़ों में अँधेरा ही रहा

इक न इक मज़हब की सई-ए-ख़ाम भी होती रही

अहल-ए-दिल पर बारिश-ए-इल्हाम भी होती रही

आसमानों से फ़रिश्ते भी उतरते ही रहे

नेक बंदे भी ख़ुदा का काम करते ही रहे

इब्न-ए-मरयम भी उठे मूसी-ए-इमराँ भी उठे

राम ओ गौतम भी उठे फ़िरऔन ओ हामाँ भी उठे

अहल-ए-सैफ़ उठते रहे अहल-ए-किताब आते रहे

ईं जनाब उठते और आँ-जनाब आते रहे

हुक्मराँ दिल पर रहे सदियों तलक असनाम भी

अब्र-ए-रहमत बन के छाया दहर पर इस्लाम भी

मस्जिदों में मौलवी ख़ुत्बे सुनाते ही रहे

मंदिरों में बरहमन अश्लोक गाते ही रहे

आदमी मिन्नत-कश-ए-अरबाब-ए-इरफ़ाँ ही रहा

दर्द-ए-इंसानी मगर महरूम-ए-दरमाँ ही रहा

इक न इक दर पर जबीन-ए-शौक़ घिसती ही रही

आदमिय्यत ज़ुल्म की चक्की में पस्ती ही रही

रहबरी जारी रही पैग़म्बरी जारी रही

दीन के पर्दे में जंग-ए-ज़रगरी जारी रही

अहल-ए-बातिन इल्म से सीनों को गर्माते रहे

जहल के तारीक साए हाथ फैलाते रहे

ये मुसलसल आफ़तें ये योरिश ये क़त्ल-ए-आम

आदमी कब तक रहे औहाम-ए-बातिल का ग़ुलाम

ज़ेहन-ए-इंसानी ने अब औहाम के ज़ुल्मात में

ज़िंदगी की सख़्त तूफ़ानी अँधेरी रात में

कुछ नहीं तो कम से कम ख़्वाब-ए-सहर देखा तो है

जिस तरफ़ देखा न था अब तक उधर देखा तो है

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