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ख़ाना-ब-दोश - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

ख़ाना-ब-दोश

बस्ती से थोड़ी दूर चट्टानों के दरमियाँ

ठहरा हुआ है ख़ाना-ब-दोशों का कारवाँ

उन की कहीं ज़मीन न उन का कहीं मकाँ

फिरते हैं यूँही शाम ओ सहर ज़ेर-ए-आसमाँ

धूप और अब्र-ओ-बार के मारे हुए ग़रीब

ये लोग वो हैं जिन को ग़ुलामी नहीं नसीब

इस कारवाँ में तिफ़्ल भी हैं नौजवाँ भी हैं

बूढ़े भी हैं मरीज़ भी हैं ना-तवाँ भी हैं

मैले फटे लिबास में कुछ देवियाँ भी हैं

सब ज़िंदगी से तंग भी हैं सरगिराँ भी हैं

बे-ज़ार ज़िंदगी से हैं पीर ओ जवाँ सभी

अल्ताफ़-ए-शहरयार के हैं नौहा-ख़्वाँ सभी

माथे पे सख़्त-कोशी-ए-पैहम की दास्ताँ

आँखों में हुज़्न ओ यास की घनघोर बदलियाँ

चेहरों पे ताज़्याना-ए-इफ़्लास के निशाँ

हर हर अदा से भूक की बेताबियाँ अयाँ

पैसा अगर मिले तो हमीयत भी बेच दें

रोटी का आसरा हो तो इज़्ज़त भी बेच दें

उट्ठे हैं जिस की गोद से आज़र वो क़ौम है

तोड़े हैं जिस ने चर्ख़ से अख़्तर वो क़ौम है

पलटे हैं जिस ने दहर के दफ़्तर वो क़ौम है

पैदा किए हैं जिस ने पयम्बर वो क़ौम है

अब क्यूँ शरीक-ए-हल्क़ा-ए-नौ-ए-बशर नहीं

इंसान ही तो हैं ये कोई जानवर नहीं

आख़िर ज़माना उन को सताएगा कब तलक

कब से जला रहा है जलाएगा कब तलक

कब से मिटा रहा है मिटाएगा कब तलक

उन के लहू को जोश न आएगा कब तलक

मायूसियों की तह में जुनूँ-ख़ेज़ियाँ भी हैं

अफ़्लास की सरिश्त में ख़ूँ-रेज़ियाँ भी हैं

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