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गुरेज़ - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

गुरेज़

ये जा कर कोई बज़्म-ए-ख़ूबाँ में कह दो

कि अब दर-ख़ोर-ए-बज़्म-ए-ख़ूबाँ नहीं मैं

मुबारक तुम्हें क़स्र-ओ-ऐवाँ तुम्हारे

वो दिल-दादा-ए-क़स्र-ओ-ऐवाँ नहीं मैं

जवानी भी सरकश मोहब्बत भी सरकश

वो ज़िंदानी-ए-ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ नहीं मैं

तड़प मेरी फ़ितरत तड़पता हूँ लेकिन

वो ज़ख़्मी-ए-पैकान-ए-मिज़्गाँ नहीं मैं

धड़कता है दिल अब भी रातों को लेकिन

वो नौहा-गर-ए-दर्द-ए-हिज्राँ नहीं मैं

ब-ईं तिश्ना-कामी ब-ईं तल्ख़-कामी

रहीन-ए-लब-ए-शक्कर-अफ़्शाँ नहीं मैं

शराब ओ शबिस्ताँ का मारा हूँ लेकिन

वो ग़र्क़-ए-शराब-ए-शबिस्ताँ नहीं मैं

क़सम नुत्क़ की शोला-अफ़्शानियों की

कि शाएर तो हूँ अब ग़ज़ल-ख़्वाँ नहीं मैं

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