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फ़िक्र - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

फ़िक्र

नहीं हर चंद किसी गुम-शुदा जन्नत की तलाश

इक न इक ख़ुल्द-ए-तरब-नाक का अरमाँ है ज़रूर

बज़्म-ए-दोशंबा की हसरत तो नहीं है मुझ को

मेरी नज़रों में कोई और शबिस्ताँ है ज़रूर

मिट के बर्बाद-ए-जहाँ हो के सभी कुछ खो के

बात क्या है कि ज़ियाँ का कोई एहसास नहीं

कार-फ़रमा है कोई ताज़ा जुनून-ए-तामीर

दिल-ए-मुज़्तर अभी अमाज-गह-ए-यास नहीं

ताज़ा-दम भी हूँ मगर फिर ये तक़ाज़ा क्यूँ है

हाथ रख दे मिरे माथे पे कोई ज़ोहरा-जबीं

एक आग़ोश-ए-हसीं शौक़ की मेराज है क्या

क्या यही है असर-ए-नाला-ए-दिल-हा-ए-हज़ीं

मह-वशों का तरब-अंगेज़ तबस्सुम क्या है

है तो सब कुछ ये मगर ख़्वाब असर क्यूँ हो जाए

हुस्न की जल्वा-गह-ए-नाज़ का अफ़्सूँ तस्लीम

यही क़ुर्बां--गह-ए-अरबाब-ए-नज़र क्यूँ हो जाए

मैं ने सोचा था कि दुश्वार है मंज़िल अपनी

इक हसीं बाज़ु-ए-सीमीं का सहारा भी तो है

दश्त-ए-ज़ुल्मात से आख़िर को गुज़रना है मुझे

कोई रख़्शंदा ओ ताबिंदा सितारा भी तो है

आग को किस ने गुलिस्ताँ न बनाना चाहा

जल बुझे कितने ख़लील आग गुलिस्ताँ न बनी

टूट जाना दर-ए-ज़िंदाँ का तो दुश्वार न था

ख़ुद ज़ुलेख़ा ही रफ़ीक़-ए-मह-ए-कनआँ न बनी

ब-ईं इनआम-ए-वफ़ा उफ़ ये तक़ाज़ा-ए-हयात

ज़िंदगी वक़्फ़-ए-ग़म-ए-ख़ाक-नशीनां कर दे

ख़ून-ए-दिल की कोई क़ीमत जो नहीं है तो न हो

ख़ून-ए-दिल नज़्र-ए-चमन-बनदी-ए-दौरां कर दे

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