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एक दोस्त की ख़ुश-मज़ाक़ी पर - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

एक दोस्त की ख़ुश-मज़ाक़ी पर

हो नहीं सकता तिरी इस ''ख़ुश-मज़ाक़ी'' का जवाब

शाम का दिलकश समाँ और तेरे हाथों में किताब

रख भी दे अब इस किताब-ए-ख़ुश्क को बाला-ए-ताक़

उड़ रहा है रंग-ओ-बू की बज़्म में तेरा मज़ाक़

छुप रहा है पर्दा-ए-मग़रिब में महर-ए-ज़र-फ़िशाँ

दीद के क़ाबिल हैं बादल में शफ़क़ की सुर्ख़ियाँ

मौजज़न जू-ए-शफ़क़ है इस तरह ज़ेर-ए-सहाब

जिस तरह रंगीन शीशों में झलकती है शराब

इक निगारिश-ए-आतिशीं हर शय पे है छाया हुआ

जैसे आरिज़ पर उरूस-ए-नौ के हो रंग-ए-हया

शाना-ए-गीती पे लहराने को हैं गेसु-ए-शब

आसमाँ में मुनअक़िद होने को है बज़्म-ए-तरब

उड़ रहे हैं जुस्तुजू में आशियानों के तुयूर

आ चला है आइने में चाँद के हल्का सा नूर

देख कर ये शाम के नज़्ज़ारा-हा-ए-दिल-नशीं

क्या तिरे दिल में ज़रा भी गुदगुदी होती नहीं

क्या तिरी नज़रों में ये रंगीनियाँ भाती नहीं

क्या हवा-ए-सर्द तेरे दिल को तड़पाती नहीं

क्या नहीं होती तुझे महसूस मुझ को सच बता

तेज़ झोंकों में हवा के गुनगुनाने की सदा

सब्ज़ा-ओ-गुल देख कर तुझ को ख़ुशी होती नहीं

उफ़ तिरे एहसास में इतनी भी रंगीनी नहीं

हुस्न-ए-फ़ितरत की लताफ़त का जो तू क़ाएल नहीं

मैं ये कहता हूँ तुझे जीने का हक़ हासिल नहीं

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