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अयादत - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

अयादत

ये कौन आ गया रुख़-ए-ख़ंदाँ लिए हुए

आरिज़ पे रंग-ओ-नूर का तूफ़ाँ लिए हुए

बीमार के क़रीब ब-सद-शान-ए-एहतियात

दिलदारी-ए-नसीम-ए-बहाराँ लिए हुए

रुख़्सार पर लतीफ़ सी इक मौज-ए-सर-ख़ुशी

लब पर हँसी का नर्म सा तूफ़ाँ लिए हुए

पेशानी-ए-जमील पे अनवार-ए-तम्कनत

ताबिंदगी-ए-सुब्ह-ए-दरख़्शाँ लिए हुए

ज़ुल्फ़ों के पेच-ओ-ख़म में बहारें छुपी हुई

इक कारवान-ए-निकहत-ए-बुसताँ लिए हुए

आ ही गया वो मेरा निगार-ए-नज़र-नवाज़

ज़ुल्मत-कदे में शम-ए-फ़रोज़ाँ लिए हुए

इक इक अदा में सैकड़ों पहलू-ए-दिलदही

इक इक नज़र में पुर्सिश-ए-पिन्हाँ लिए हुए

मेरे सवाद-ए-शौक़ का ख़ुर्शीद-ए-नीम-शब

अज़्म-ए-शिकस्त-ए-माह-जबीनाँ लिए हुए

दरस-ए-सुकून-ओ-सब्र ब-ईं एहतिमाम-ए-नाज़

निश्तर-ज़नी-ए-जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ लिए हुए

आँखों से एक रौ सी निकलती हुई हर आन

ग़र्क़ाबी-ए-हयात का सामाँ लिए हुए

हिलती हुई निगाह में बिजली भरी हुई

खिलते हुए लबों में गुलिस्ताँ लिए हुए

ये कौन है 'मजाज़' से सर-गर्म-ए-गुफ़्तुगू

दोनों हथेलियों पे ज़नख़दाँ लिए हुए

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