अँधेरी रात का मुसाफ़िर
जवानी की अँधेरी रात है ज़ुल्मत का तूफ़ाँ है
मिरी राहों से नूर-ए-माह-ओ-अंजुम तक गुरेज़ाँ है
ख़ुदा सोया हुआ है अहरमन महशर-ब-दामाँ है
मगर मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता ही जाता हूँ
ग़म ओ हिरमाँ की यूरिश है मसाइब की घटाएँ हैं
जुनूँ की फ़ित्ना-ख़ेज़ी हुस्न की ख़ूनीं अदाएँ हैं
बड़ी पुर-ज़ोर आँधी है बड़ी काफ़िर बलाएँ हैं
मगर मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता ही जाता हूँ
फ़ज़ा में मौत के तारीक साए थरथराते हैं
हवा के सर्द झोंके क़ल्ब पर ख़ंजर चलाते हैं
गुज़िश्ता इशरतों के ख़्वाब आईना दिखाते हैं
मगर मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता ही जाता हूँ
ज़मीं चीं-बर-जबीं है आसमाँ तख़रीब पर माइल
रफ़ीक़ान-ए-सफ़र में कोई बिस्मिल है कोई घाएल
तआक़ुब में लुटेरे हैं चटानें राह में हाएल
मगर मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता ही जाता हूँ
उफ़ुक़ पर ज़िंदगी के लश्कर-ए-ज़ुल्मत का डेरा है
हवादिस के क़यामत-ख़ेज़ तूफ़ानों ने घेरा है
जहाँ तक देख सकता हूँ अँधेरा ही अँधेरा है
मगर मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता ही जाता हूँ
चराग़-ए-दैर फ़ानूस-ए-हरम क़िंदील-ए-रहबानी
ये सब हैं मुद्दतों से बे-नियाज़-ए-नूर-ए-इर्फ़ानी
न नाक़ूस-ए-बरहमन है न आहंग-ए-हुदा-ख़्वानी
मगर मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता ही जाता हूँ
तलातुम-ख़ेज़ दरिया आग के मैदान हाएल हैं
गरजती आँधियाँ बिफरे हुए तूफ़ान हाएल हैं
तबाही के फ़रिश्ते जब्र के शैतान हाएल हैं
मगर मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता ही जाता हूँ
फ़ज़ा में शोला-अफ़्शाँ देव-ए-इस्तिब्दाद का ख़ंजर
सियासत की सनानें अहल-ए-ज़र के ख़ूँ-चकाँ तेवर
फ़रेब-ए-बे-ख़ुदी देते हुए बिल्लोर के साग़र
मगर मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता ही जाता हूँ
बदी पर बारिश-ए-लुत्फ़-ओ-करम नेकी पे ताज़ीरें
जवानी के हसीं ख़्वाबों की हैबतनाक ताबीरें
नुकीली तेज़ संगीनें हैं ख़ूँ-आशाम शमशीरें
मगर मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता ही जाता हूँ
हुकूमत के मज़ाहिर जंग के पुर-हौल नक़्शे हैं
कुदालों के मुक़ाबिल तोप बंदूक़ें हैं नेज़े हैं
सलासिल ताज़ियाने बेड़ियाँ फाँसी के तख़्ते हैं
मगर मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता ही जाता हूँ
उफ़ुक़ पर जंग का ख़ूनीं सितारा जगमगाता है
हर इक झोंका हवा का मौत का पैग़ाम लाता है
घटा की घन-गरज से क़ल्ब-ए-गीती काँप जाता है
मगर मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता ही जाता हूँ
फ़ना के आहनी वहशत-असर क़दमों की आहट है
धुवें की बदलियाँ हैं गोलियों की सनसनाहट है
अजल के क़हक़हे हैं ज़लज़लों की गड़गड़ाहट है
मगर मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता ही जाता हूँ
(1606) Peoples Rate This