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ये जहाँ बारगह-ए-रित्ल-ए-गिराँ है साक़ी - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

ये जहाँ बारगह-ए-रित्ल-ए-गिराँ है साक़ी

ये जहाँ बारगह-ए-रित्ल-ए-गिराँ है साक़ी

इक जहन्नम मिरे सीने में तपाँ है साक़ी

जिस ने बर्बाद किया माइल-ए-फ़रियाद किया

वो मोहब्बत अभी इस दिल में जवाँ है साक़ी

एक दिन आदम ओ हव्वा भी किए थे पैदा

वो उख़ुव्वत तिरी महफ़िल में कहाँ है साक़ी

हर चमन दामन-ए-गुल-रंग है ख़ून-ए-दिल से

हर तरफ़ शेवन-ओ-फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ है साक़ी

माह ओ अंजुम मिरे अश्कों से गुहर-ताब हुए

कहकशाँ नूर की एक जू-ए-रवाँ है साक़ी

हुस्न ही हुस्न है जिस सम्त भी उठती है नज़र

कितना पुर-कैफ़ ये मंज़र ये समाँ है साक़ी

ज़मज़मा साज़ का पायल की छनाके की तरह

बेहतर-अज़-शोरिश-ए-नाक़ूस-ओ-अज़ाँ है साक़ी

मेरे हर लफ़्ज़ में बेताब मिरा शोर-ए-दरूँ

मेरी हर साँस मोहब्बत का धुआँ है साक़ी

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