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वो नक़ाब आप से उठ जाए तो कुछ दूर नहीं - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

वो नक़ाब आप से उठ जाए तो कुछ दूर नहीं

वो नक़ाब आप से उठ जाए तो कुछ दूर नहीं

वर्ना मेरी निगह-ए-शौक़ भी मजबूर नहीं

ख़ातिर-ए-अहल-ए-नज़र हुस्न को मंज़ूर नहीं

इस में कुछ तेरी ख़ता दीदा-ए-महजूर नहीं

लाख छुपते हो मगर छुप के भी मस्तूर नहीं

तुम अजब चीज़ हो नज़दीक नहीं दूर नहीं

जुरअत-ए-अर्ज़ पे वो कुछ नहीं कहते लेकिन

हर अदा से ये टपकता है कि मंज़ूर नहीं

दिल धड़क उठता है ख़ुद अपनी ही हर आहट पर

अब क़दम मंज़िल-ए-जानाँ से बहुत दूर नहीं

हाए वो वक़्त कि जब बे-पिए मद-होशी थी

हाए ये वक़्त कि अब पी के भी मख़्मूर नहीं

हुस्न ही हुस्न है जिस सम्त उठाता हूँ नज़र

अब यहाँ तूर नहीं बर्क़-ए-सर-ए-तूर नहीं

देख सकता हूँ जो आँखों से वो काफ़ी है 'मजाज़'

अहल-ए-इरफ़ाँ की नवाज़िश मुझे मंज़ूर नहीं

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