वो नक़ाब आप से उठ जाए तो कुछ दूर नहीं
वो नक़ाब आप से उठ जाए तो कुछ दूर नहीं
वर्ना मेरी निगह-ए-शौक़ भी मजबूर नहीं
ख़ातिर-ए-अहल-ए-नज़र हुस्न को मंज़ूर नहीं
इस में कुछ तेरी ख़ता दीदा-ए-महजूर नहीं
लाख छुपते हो मगर छुप के भी मस्तूर नहीं
तुम अजब चीज़ हो नज़दीक नहीं दूर नहीं
जुरअत-ए-अर्ज़ पे वो कुछ नहीं कहते लेकिन
हर अदा से ये टपकता है कि मंज़ूर नहीं
दिल धड़क उठता है ख़ुद अपनी ही हर आहट पर
अब क़दम मंज़िल-ए-जानाँ से बहुत दूर नहीं
हाए वो वक़्त कि जब बे-पिए मद-होशी थी
हाए ये वक़्त कि अब पी के भी मख़्मूर नहीं
हुस्न ही हुस्न है जिस सम्त उठाता हूँ नज़र
अब यहाँ तूर नहीं बर्क़-ए-सर-ए-तूर नहीं
देख सकता हूँ जो आँखों से वो काफ़ी है 'मजाज़'
अहल-ए-इरफ़ाँ की नवाज़िश मुझे मंज़ूर नहीं
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