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तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए

तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए

इस सई-ए-करम को क्या कहिए बहला भी गए तड़पा भी गए

हम अर्ज़-ए-वफ़ा भी कर न सके कुछ कह न सके कुछ सुन न सके

याँ हम ने ज़बाँ ही खोली थी वाँ आँख झुकी शरमा भी गए

आशुफ़्तगी-ए-वहशत की क़सम हैरत की क़सम हसरत की क़सम

अब आप कहें कुछ या न कहें हम राज़-ए-तबस्सुम पा भी गए

रूदाद-ए-ग़म-ए-उल्फ़त उन से हम क्या कहते क्यूँकर कहते

इक हर्फ़ न निकला होंटों से और आँख में आँसू आ भी गए

अरबाब-ए-जुनूँ पर फ़ुर्क़त में अब क्या कहिए क्या क्या गुज़री

आए थे सवाद-ए-उल्फ़त में कुछ खो भी गए कुछ पा भी गए

ये रंग-ए-बहार-ए-आलम है क्यूँ फ़िक्र है तुझ को ऐ साक़ी

महफ़िल तो तिरी सूनी न हुई कुछ उठ भी गए कुछ आ भी गए

इस महफ़िल-ए-कैफ़-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफ़ानी में

सब जाम-ब-कफ़ बैठे ही रहे हम पी भी गए छलका भी गए

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