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साज़गार है हमदम इन दिनों जहाँ अपना - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

साज़गार है हमदम इन दिनों जहाँ अपना

साज़गार है हमदम इन दिनों जहाँ अपना

इश्क़ शादमाँ अपना शौक़ कामराँ अपना

आह बे-असर किस की नाला ना-रसा किस का

काम बार-हा आया जज़्बा-ए-निहाँ अपना

कब किया था इस दिल पर हुस्न ने करम इतना

मेहरबाँ और इस दर्जा कब था आसमाँ अपना

उलझनों से घबराए मय-कदे में दर आए

किस क़दर तन-आसाँ है ज़ौक़-ए-राएगाँ अपना

कुछ न पूछ ऐ हमदम इन दिनों मिरा आलम

मुतरिब-ए-हसीं अपना साक़ी-ए-जवाँ अपना

इश्क़ और रुस्वाई कौन सी नई शय है

इश्क़ तो अज़ल से था रुस्वा-ए-जहाँ अपना

तुम 'मजाज़' दीवाने मस्लहत से बेगाने

वर्ना हम बना लेते तुम को राज़-दाँ अपना

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