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साक़ी-ए-गुलफ़ाम बा-सद एहतिमाम आ ही गया - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

साक़ी-ए-गुलफ़ाम बा-सद एहतिमाम आ ही गया

साक़ी-ए-गुलफ़ाम बा-सद एहतिमाम आ ही गया

नग़्मा बर लब ख़ुम ब सर बादा ब जाम आ ही गया

अपनी नज़रों में नशात-ए-जल्वा-ए-ख़ूबाँ लिए

ख़ल्वती-ए-ख़ास सू-ए-बज़्म-ए-आम आ ही गया

मेरी दुनिया जगमगा उट्ठी किसी के नूर से

मेरे गर्दूं पर मिरा माह-ए-तमाम आ ही गया

झूम झूम उट्ठे शजर कलियों ने आँखें खोल दीं

जानिब-ए-गुलशन कोई मस्त-ए-ख़िराम आ ही गया

फिर किसी के सामने चश्म-ए-तमन्ना झुक गई

शौक़ की शोख़ी में रंग-ए-एहतराम आ ही गया

मेरी शब अब मेरी शब है मेरा बादा मेरे जाम

वो मिरा सर्व-ए-रवाँ माह-ए-तमाम आ ही गया

बार-हा ऐसा हुआ है याद तक दिल में न थी

बार-हा मस्ती में लब पर उन का नाम आ ही गया

ज़िंदगी के ख़ाका-ए-सादा को रंगीं कर दिया

हुस्न काम आए न आए इश्क़ काम आ ही गया

खुल गई थी साफ़ गर्दूं की हक़ीक़त ऐ 'मजाज़'

ख़ैरियत गुज़री कि शाहीं ज़ेर-ए-दाम आ ही गया

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