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रुख़्सत ऐ हम-सफ़रो शहर-ए-निगार आ ही गया - असरार-उल-हक़ मजाज़ कविता - Darsaal

रुख़्सत ऐ हम-सफ़रो शहर-ए-निगार आ ही गया

रुख़्सत ऐ हम-सफ़रो शहर-ए-निगार आ ही गया

ख़ुल्द भी जिस पे हो क़ुर्बां वो दयार आ ही गया

ये जुनूँ-ज़ार मिरा मेरे ग़ज़ालों का जहाँ

मेरा नज्द आ ही गया मेरा ततार आ ही गया

आज फिरता ब-चमन दरपय-ए-गुल-हा-ए-चमन

गुनगुनाता हुआ ज़ंबूर-ए-बहार आ ही गया

गेसुओं वालों में अबरू के कमाँ-दारों में

एक सैद आ ही गया एक शिकार आ ही गया

बाग़बानों को बताओ गुल-ओ-नस्रीं से कहो

इक ख़राब-ए-गुल-ओ-नसरीन-ए-बहार आ ही गया

ख़ैर-मक़्दम को मिरे कोई ब-हंगाम-ए-सहर

अपनी आँखों में लिए शब का ख़ुमार आ ही गया

ज़ुल्फ़ का अब्र-ए-सियह बाज़ू-ए-सीमीं पे लिए

फिर कोई ख़ेमा-ज़न-ए-साज़-ए-बहार आ ही गया

हो गई तिश्ना-लबी आज रहीन-ए-कौसर

मेरे लब पर लब-ए-ल'अलीन-ए-निगार आ ही गया

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