पहचान ज़िंदगी की समझ कर मैं चुप रहा
पहचान ज़िंदगी की समझ कर मैं चुप रहा
अपने ही फेंकते रहे पत्थर मैं चुप रहा
लम्हे अँधेरे दश्त में पीते रहे मुझे
मुझ में था रौशनी का समुंदर मैं चुप रहा
मेरे लहू के रंग का ऐसा असर हुआ
मुंसिफ़ से बोलता रहा ख़ंजर मैं चुप रहा
बोझल उदास रात थी ख़ामोश थी हवा
फूलों की आग में जला बिस्तर मैं चुप रहा
'असरार' क्यूँ किसी से मैं करता शिकायतें
वो आख़िरी था राह का पत्थर मैं चुप रहा
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