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वस्ल की जो ख़्वाहिश है - असरा रिज़वी कविता - Darsaal

वस्ल की जो ख़्वाहिश है

ये बहुत रुलाती है रात-भर जगाती है

चैन लेने देती है और न रोने देती है

यूँ तो एक मुद्दत से

तुम से हम हैं बेगाना

साथ चलते रहने का न तो कोई वा'दा है

फिर भी दिल में जाने क्यूँ इक ख़लिश सी रहती है

दिल में ये ख़याल अक्सर आ के ठहर जाता है

साथ साथ चलते हम ज़िंदगी के रस्तों पर

हर सफ़र हँसी होता तुम जो मेरे साथ होते

लेकिन ऐ मिरे रहबर

अब तो ख़ौफ़ उस का है ख़्वाब में जो आए तुम

और बे-ख़याली में नाम जो लिया हम ने

सब ही चौंक जाएँगे मुस्तक़िल सवालों से

ला-जवाब कर देंगे

इस लिए मेरे जाना

वस्ल की जो ख़्वाहिश है

इस को भूल जाती हूँ

और तुम्हारी यादों से

अब विदाअ' लेती हूँ

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