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आओ चलें उस खंडर में - असरा रिज़वी कविता - Darsaal

आओ चलें उस खंडर में

जो अर्सा पहले टूट गया

कुछ यादें उन में बाक़ी हैं

फ़रियादें भी कुछ बाक़ी हैं

शहनाई का है कोई मद्धम सुर

उन दीवारों में गूँज रहा

आओ चलें उस खंडर में

जो अर्सा पहले टूट गया

कुछ साए हमारे बचपन के

कुछ याद हमारे लोगों की

इस खंडर से वाबस्ता हैं

थी नक़्श बहुत सी तस्वीरें

इस खंडर की दीवारों पर

तुम जानते हो वो किस की थीं

कुछ बच्चों की कुछ बूढ़ों की

कुछ मेरे अपने बचपन की

आओ चलें उस खंडर में

जो अर्सा पहले टूट गया

और

साथ बहुत कुछ लूट गया

वो देख रहे हो बंजर तिल

इस खंडर का वो हिस्सा था

तब सहन उसे हम कहते थे

सब मिल के उस में रोते थे

शाम की अक्सर चाय हम

उस जा पर बैठ के पीते थे

आओ चलें उस हिस्से में

जहाँ बैठ के हम सब पढ़ते थे

शोर मचाया करते थे

और सब को हँसाया करते थे

कभी लड़ते थे कभी रोते थे

ये देखो ये जो मिट्टी है

हम इस में खेला करते थे

और घंटों खेला करते थे

वो देखो वो टूटी डेवढ़ी

मेरे घर की चौखट है

हर साल नया सा रंग कोई

हम लोग चढ़ाते थे इस पर

जानते हो ये खंडर कभी

आबाद भी था शादाब भी था

हम लोग इसी में रहते थे

ये घर था हमारा प्यारा सा

और प्यारे प्यारे लोग बहुत से

साथ हमारे रहते थे

हम जश्न मनाया करते थे

उन चाहने वाले लोगों के

लहजे की लहक आँखों की चमक

क़दमों की धमक

उस घर की फ़ज़ा में गूँज रही

तुम ग़ौर करो आहिस्ता चलो

ये खंडर नहीं है घर है मिरा

इस गर्दिश-ए-दौराँ ने जिस को

यूँ लूट लिया बर्बाद किया

मैं लौट के अब जो आई हूँ

अस्बाब बहुत से लाई हूँ

पर सुनने वाला कोई नहीं

नायाब हुए वो लोग सभी

वो आँखें थक के मुँद भी गई

जो रात को जागा करती थीं

अब ये तो बस इक खंडर है

आओ चलें इस खंडर में

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