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फिर कोई ताज़ा-सितम वो सितम-ईजाद करे - असरा रिज़वी कविता - Darsaal

फिर कोई ताज़ा-सितम वो सितम-ईजाद करे

फिर कोई ताज़ा-सितम वो सितम-ईजाद करे

काश इस कर्ब-ए-तग़ाफ़ुल से अब आज़ाद करे

कहीं बंजर ही न हो जाए मिरे दिल की ज़मीं

लाला-ए-ज़ख़्म से इस किश्त को आबाद करे

जानता था के हर आवाज़ पलट आएगी

फिर तवातुर से दुआ क्यूँ दिल-ए-नाशाद करे

अपने लहजे की ही सख़्ती को तसव्वुर कर के

लौट आने की शब-ए-हिज्र में फ़रियाद करे

गाम-दर-गाम बदलता है चलन ज़ालिम का

जाने इस बार नई कौन सी बेदाद करे

उस से कह दे कोई ख़ामोश है साज़-ए-हस्ती

छेड़ कर वस्ल का नग़्मा मिरा दिल शाद करे

लोग अंजाम की दहशत से निकल आए हैं

अब जो कर पाए तो इस शहर को बर्बाद करे

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