यही नहीं कि किसी याद ने मलूल किया
कभी कभी तो यूँही बे-सबब भी रोए हैं
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हर रंग-ए-तरब मौसम ओ मंज़र से निकाला
तमाम उम्र जिसे मैं उबूर कर न सका
तेरे कूचे की हवा पूछे है अब हम से
देख के अर्ज़ां लहू सुर्ख़ी-ए-मंज़र ख़मोश
ऐ मिरे ग़ुबार-ए-सर तू ही तो नहीं तन्हा राएगाँ तो मैं भी हूँ
पाँव उस के भी नहीं उठते मिरे घर की तरफ़
पत्थरों पर वादियों में नक़्श-ए-पा मेरा भी है
ख़ता ये थी कि मैं आसानियों का तालिब था
दश्त मरऊब है कितना मिरी वीरानी से
सफ़र से पहले सराबों का सिलसिला रख आए
हम दिल से रहे तेज़ हवाओं के मुख़ालिफ़
क्यूँ मुझ से गुरेज़ाँ है मैं तेरा मुक़द्दर हूँ