रुक गया आ के जहाँ क़ाफ़िला-ए-रंग-ओ-नशात
कुछ क़दम आगे ज़रा बढ़ के मकाँ है मेरा
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तेग़-ए-नफ़स को बहुत नाज़ था रफ़्तार पर
आ गया कौन ये आज उस के मुक़ाबिल 'असलम'
कहाँ भटकती फिरेगी अँधेरी गलियों में
हर रंग-ए-तरब मौसम ओ मंज़र से निकाला
यही नहीं कि किसी याद ने मलूल किया
ऐ मिरे ग़ुबार-ए-सर तू ही तो नहीं तन्हा राएगाँ तो मैं भी हूँ
ख़ता ये थी कि मैं आसानियों का तालिब था
मिज़ा पे ख़्वाब नहीं इंतिज़ार सा कुछ है
मैं एक रेत का पैकर था और बिखर भी गया
रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़
रंग सारे अपने अंदर रफ़्तगाँ के हैं
पाँव उस के भी नहीं उठते मिरे घर की तरफ़