ख़ता ये थी कि मैं आसानियों का तालिब था
सज़ा ये है कि मिरा तीशा-ए-हुनर भी गया
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रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़
मैं एक रेत का पैकर था और बिखर भी गया
तमाम उम्र जिसे मैं उबूर कर न सका
मिरे शौक़-ए-सैर-ओ-सफ़र को अब नए इक जहाँ की नुमूद कर
पत्थरों पर वादियों में नक़्श-ए-पा मेरा भी है
देख के अर्ज़ां लहू सुर्ख़ी-ए-मंज़र ख़मोश
सफ़र से पहले सराबों का सिलसिला रख आए
मिरी कहानी रक़म हुई है हवा के औराक़-ए-मुंतशिर पर
मैं हज्व इक अपने हर क़सीदे की रद में तहरीर कर रहा हूँ
हम दिल से रहे तेज़ हवाओं के मुख़ालिफ़
रंग सारे अपने अंदर रफ़्तगाँ के हैं