हम दिल से रहे तेज़ हवाओं के मुख़ालिफ़
जब थम गया तूफ़ाँ तो क़दम घर से निकाला
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पत्थरों पर वादियों में नक़्श-ए-पा मेरा भी है
रंग सारे अपने अंदर रफ़्तगाँ के हैं
बुझ गए मंज़र उफ़ुक़ पर हर निशाँ मद्धम हुआ
अक्स जल जाएँगे आईने बिखर जाएँगे
अब ये समझे कि अंधेरा भी ज़रूरी शय है
मिरी कहानी रक़म हुई है हवा के औराक़-ए-मुंतशिर पर
रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़
दश्त मरऊब है कितना मिरी वीरानी से
सराब-ए-मअनी-ओ-मफ़्हूम में भटकते हैं
रुक गया आ के जहाँ क़ाफ़िला-ए-रंग-ओ-नशात
तमाम उम्र जिसे मैं उबूर कर न सका
देख के अर्ज़ां लहू सुर्ख़ी-ए-मंज़र ख़मोश