बे-रंग न वापस कर इक संग ही दे सर को
कब से तिरा तालिब हूँ कब से तिरे दर पर हूँ
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तेग़-ए-नफ़स को बहुत नाज़ था रफ़्तार पर
मिज़ा पे ख़्वाब नहीं इंतिज़ार सा कुछ है
वो दर्द हूँ कोई चारा नहीं है जिस का कहीं
देख आ कर कि तिरे हिज्र में भी ज़िंदा हैं
ख़ता ये थी कि मैं आसानियों का तालिब था
हर रंग-ए-तरब मौसम ओ मंज़र से निकाला
न मलाल-ए-हिज्र न मुंतज़िर हैं हवा-ए-शाम-ए-विसाल के
रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़
क्यूँ मुझ से गुरेज़ाँ है मैं तेरा मुक़द्दर हूँ
तेरे कूचे की हवा पूछे है अब हम से
सराब-ए-मअनी-ओ-मफ़्हूम में भटकते हैं
अब ये समझे कि अंधेरा भी ज़रूरी शय है